भारत में बेटियों के अधिकारों को लेकर लंबे समय से चर्चा होती रही है, लेकिन अब इस दिशा में असली बदलाव की उम्मीद दिखाई दे रही है। खासकर जब बात पैतृक संपत्ति और कृषि भूमि की होती है, तो वर्षों से बेटियों को उनके हक से वंचित किया जाता रहा है — और वो भी सिर्फ इसलिए क्योंकि वे शादीशुदा हैं। अब इस भेदभाव को खत्म करने की तैयारी शुरू हो गई है।
अब तक क्या था नियम?
उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड जैसे राज्यों में एक कानून लागू है, जिसमें पुरुष के निधन के बाद उसकी संपत्ति की वारिस उसकी विधवा, बेटे और अविवाहित बेटियाँ होती हैं। यानी जैसे ही बेटी की शादी हो जाती है, वो अपने पिता की ज़मीन की हकदार नहीं रह जाती। ये नियम सिर्फ बेटे-बेटी में नहीं, बल्कि अविवाहित और शादीशुदा बेटियों में भी भेद करता है।
क्या है नया प्रस्ताव?
अब यूपी की राजस्व परिषद ने इस पुराने नियम में बदलाव की सिफारिश की है। प्रस्ताव के अनुसार, कानून में “अविवाहित पुत्री” की जगह केवल “पुत्री” शब्द रहेगा। यानी अब शादीशुदा बेटियों को भी अपने पिता की कृषि भूमि में बराबरी का हक मिल सकेगा। अगर यह बदलाव कानून बनता है, तो यह एक ऐतिहासिक कदम होगा।
क्यों है यह बदलाव जरूरी?
समाज में बेटियों को अक्सर यह कहा जाता है कि “अब तुम्हारा घर ससुराल है”, और इस सोच की आड़ में उन्हें पैतृक अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है। लेकिन बेटियाँ भी परिवार का उतना ही हिस्सा होती हैं जितना बेटा। अगर बेटा विदेश में रहे और फिर भी ज़मीन पर हक रखे, तो बेटी को केवल शादीशुदा होने के कारण हक से क्यों रोका जाए?
क्या होंगे इसके फायदे?
- आर्थिक सशक्तिकरण: बेटियाँ अपने हक का इस्तेमाल कर पाएंगी, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर होगी।
- आत्मनिर्भरता: ज़मीन के मालिकाना हक से बेटियाँ आत्मनिर्भर बनेंगी और परिवार में निर्णय लेने में हिस्सेदार होंगी।
- सामाजिक बदलाव: यह फैसला समाज में पितृसत्तात्मक सोच को कमजोर करेगा और बेटियों को बराबरी का दर्जा देगा।
कुछ चुनौतियाँ भी होंगी
जैसे हर बदलाव के साथ कुछ सवाल उठते हैं, वैसे ही यहां भी कुछ लोगों को डर है कि इससे ज़मीन का बँटवारा ज़्यादा हो जाएगा। मगर राजस्थान और मध्य प्रदेश में पहले से ये कानून लागू है और वहाँ ऐसा कोई बड़ा संकट नहीं आया है।
ये बदलाव सिर्फ कानून का हिस्सा नहीं, बल्कि सामाजिक सोच में परिवर्तन की शुरुआत है। बेटियों को उनका हक देना एक जरूरी कदम है, जिससे न केवल उनका जीवन बेहतर होगा, बल्कि समाज में समानता और न्याय की नींव और मजबूत होगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि ये प्रस्ताव जल्द ही हकीकत बने और देशभर की बेटियों को उनका हक मिले — बिना किसी भेदभाव के।